Friday, November 19, 2010
MAA BALA TIRPUR SUNDARI- BARHIYA JAGDAMBA STHAN
This is the temple that should be visited at least once in a life-time. It is located in the small town of India called Barhiya. Barhiya is well connected to road as well as train. It is based on main Howrah Patna railway route. It is108 kM away from Patna & near by 400 kM away from Kolkata. The temple is as sacred as Maa Vaishnav Devi Temple & has same kind of history. It is believed that Siridhar Ojha was the founder of the temple. A video clip of Jagdamba Sathan is the brain child of Mr. ( Major) Shiv Kumar from US. The idea behind the clip is that a person who is far away from Barhiya can have look of their own Jagdamba Sathan. We also welcome the other devotee who are new to know about Jagdamba Sathan.
D.KUMAR MOLAN
D.KUMAR MOLAN
bharasta chaar
हमारे हिन्दुस्तान के कानून में भारसता चार के लिए नए कानून बनाने की अवाशाक्यता हे , इस पर हमारे देश के सर्वोच नयायालय को विचार करना चाहिए ? corruption कोर्रुप्तिओन नहीं चैहिये ?
Tuesday, November 16, 2010
bikhre moti ( kavita )
कलम आम इन्सान की ख़ामोशियों की ज़ुबान बन गई है. कविता लिखना एक स्वभाविक क्रिया है, शायद इसलिये कि हर इन्सान में कहीं न कहीं एक कवि, एक कलाकार, एक चित्रकार और शिल्पकार छुपा हुआ होता है. ऐसे ही रचनात्मक संभावनाओं में जब एक कवि की निशब्द सोच शब्दों का पैरहन पहन कर थिरकती है तो शब्द बोल उठते हैं. यह अहसास हू-ब-हू पाया, जब श्री समीर लाल की रचनात्मक अनुभूति ‘बिखरे मोती’ से रुबरु हुई. उनकी बानगी में ज़िन्दगी के हर अनछुए पहलू को कलम की रवानगी में खूब पेश किया है-
हाथ में लेकर कलम, मैं हाले-दिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता, आप ही बहता गया.
यह संदेश उनकी पुस्तक के आखिरी पन्ने पर कलमबद्ध है. ज़िन्दगी की किताब को उधेड़ कर बुनने का उनका आगाज़ भी पाठनीय है-
मेरी छत न जाने कहाँ गईस![samman (sameer) 2](https://lh3.googleusercontent.com/blogger_img_proxy/AEn0k_uvDoZ-uHO6JzLopw6zhAbiV2Y-ZLMjcNVnoLTsRaBJPSmIqgjQhUvbCRviHIoutnxzW_xQ0mqfbQg9yA09DrFLLriFtoQZTMf5t7Juri0BGdbsxJn2r-rwAuXpxiTVgKCB7cmTmEhjKtBeY1Ax=s0-d)
छांव पाने को मन मचलता है!
इन्सान का दिल भी अजब गहरा सागर है, जहाँ हर लहर मन के तट पर टकराकर बीते हुए हर पल की आहट सुना जाती है. हर तह के नीचे अंगड़ाइयां लेती हुई पीड़ा को शब्द स्पष्ट रुप में ज़ाहिर कर रहे हैं, जिनमें समोहित है उस छत के नीचे गुजारे बचपन के दिन, वो खुशी के खिलखिलाते पल, वो रुठना, वो मनाना. साथ साथ गुजरे वो क्षण यादों में साए बनकर साथ पनपते हैं. कहाँ इतना आसान होता है निकल पाना उस वादी से, उस अनकही तड़प से, जिनको समीर जी शब्द में बांधते हुए ‘मां’ नामक रचना में वो कहते हैं:
वो तेरा मुझको अपनी बाहों मे भरना
माथे पे चुम्बन का टीका वो जड़ना..
जिन्दगी में कई यादें आती है. कई यादें मन के आइने में धुंधली पड़कर मिट जाती हैं, पर एक जननी से यह अलौकिक नाता जो ममता कें आंचल की छांव तले बीता, हर तपती राह पर उस शीतलता के अहसास को दिल ढूंढता रहता है. उसी अहसास की अंगड़ाइयों का दर्द समीर जी के रचनाओं का ज़ामिन बना है-
जिन्दगी, जो रंग मिले/ हर रंग से भरता गया,
वक्त की है पाठशाला/ पाठ सब पढ़ता गया…
इस पुस्तक में अपने अभिमत में हर दिल अज़ीज श्री पंकज सुबीर की पारखी नज़र इन सारगर्भित रचनाओं के गर्भ से एक पोशीदा सच को सामने लाने में सफल हुई है. उनके शब्दों में ‘पीर के पर्वत की हंसी के बादलों से ढंकने की एक कोशिश है और कभी कभी हवा जब इन बादलों को इधर उधर करती है तो साफ नज़र आता है पर्वत’. माना हुआ सत्य है, ज़िन्दगी कोई फूलों की सेज तो नहीं, अहसासों का गुलदस्ता है जिसमें शामिल है धूप-छांव, गम-खुशी और उतार-चढ़ाव की ढलानें. ज़िन्दगी के इसी झूले में झूलते हुए समीर जी का सफ़र कनाडा के टोरंटो, अमरीका से लेकर हिन्दोस्तान के अपने उस घर के आंगन से लेकर हर दिल को टटोलता हुआ वो उस गांव की नुक्कड़ पर फिर यादों के झरोखे से सजीव चित्रकारी पेश कर रहा है अपनी यादगार रचना में ‘मीर की गजल सा’-
सुना है वो पेड़ कट गया है/ उसी शाम माई नहीं रही
अब वहां पेड़ की जगह मॉल बनेगा/ और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शौचालय कहलाती है,
मेरा बचपन खत्म हुआ!
कुछ बूढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा…!
दर्द की दहलीज़ पर आकर मन थम सा जाता है. इन रचनाओं के अन्दर के मर्म से कौन अनजान है? वही राह है, वही पथिक और आगे इन्तजार करती मंजिल भी वही-जानी सी, पहचानी सी, जिस पर सफ़र करते हुए समीर जी एक साधना के बहाव में पुरअसर शब्दावली में सुनिये क्या कह रहे हैं-
गिनता जाता हूँ मैं अपनी/ आती जाती इन सांसों को
नहीं भूल पाता हूँ फिर भी/ प्यार भरी उन बातों को
लिखता हूँ बस अब लिखने को/ लिखने जैसी बात नहीं है.
अनगिनत इन्द्रधनुषी पहुलुओं से हमें रुबरु कराते हुए हमें हर मोड़ पर वो रिश्तों की जकड़न, हालात की घुटन, मन की वेदना और तन की कैद में एक छटपटाहट का संकेत भी दे रहे हैं जो रिहाई के लिये मुंतजिर है. मानव मन की संवेदनशीलता, कोमलता और भावनात्मक उदगारों की कथा-व्यथा का एक नया आयाम प्रेषित करते हैं- ‘मेरा वजूद’ और ‘मौत’ नामक रचनाओं में:
मेरा वजूद एक सूखा दरख़्त / तू मेरा सहारा न ले
मेरे नसीब में तो / एक दिन गिर जाना है
मगर मैं/ तुम्हें गिरते नहीं देख सकता, प्रिये!!
एक अदभुत शैली मन में तरंगे पैदा करती हुई अपने ही शोर में फिर ‘मौत’ की आहट से जाग उठती है-
उस रात नींद में धीमे से आकर/ थामा जो उसने मेरा हाथ…
और हुआ एक अदभुत अहसास/ पहली बार नींद से जागने का…
माना ज़िन्दगी हमें जिस तरह जी पाती है वैसे हम उसे नहीं जी पाते हैं, पर समीर जी के मन का परिंदा अपनी बेबाक उड़ान से जोश का रंग, देखिये किस कदर सरलता से भरता चला जा रहा है. उनकी रचना ‘वियोगी सोच’ की निशब्दता कितने सरल शब्दों की बुनावट में पेश हुई है-
पूर्णिमा की चांदनी जो छत पर चढ़ रही होगी..
खत मेरी ही यादों के तब पढ़ रही होगी…
हकीकत में ये ‘बिखरे मोती’ हमारे बचपन से अब तक की जी हुई जिन्दगी के अनमोम लम्हात है, जिनको सफल प्रयासों से समीर जी ने एक वजूद प्रदान किया है. ब्लॉग की दुनिया के सम्राट समीर लाल ने गद्य और पद्य पर अपनी कलम आज़माई है. अपने हृदय के मनोभावों को, उनकी जटिलताओं को सरलता से अपने गीतों, मुक्त कविता, मुक्तक, क्षणिकाओं और ग़ज़ल स्वरुप पेश किया है. मन के मंथन के उपरांत, वस्तु व शिल्प के अनोखे अक्स!!
उनकी गज़ल का मक्ता परिपक्वता में कुछ कह गया-
शब्द मोती से पिरोकर, गीत गढ़ता रह गया
पी मिलन की आस लेकर, रात जगता रह गया.
शब्द मोती के पिरोकर, गीत तुमने जो गढ़ा
मुग्ध हो कर मन मेरा ‘देवी’ उसे पढ़ने लगा
तुम कलम के हो सिपाही, जाना जब मोती चुने
ऐ समीर! इनमें मिलेगी दाद बनकर हर दुआ..
देवी नागरानी
न्यू जर्सी,
- मोलन -
हाथ में लेकर कलम, मैं हाले-दिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता, आप ही बहता गया.
यह संदेश उनकी पुस्तक के आखिरी पन्ने पर कलमबद्ध है. ज़िन्दगी की किताब को उधेड़ कर बुनने का उनका आगाज़ भी पाठनीय है-
मेरी छत न जाने कहाँ गईस
छांव पाने को मन मचलता है!
इन्सान का दिल भी अजब गहरा सागर है, जहाँ हर लहर मन के तट पर टकराकर बीते हुए हर पल की आहट सुना जाती है. हर तह के नीचे अंगड़ाइयां लेती हुई पीड़ा को शब्द स्पष्ट रुप में ज़ाहिर कर रहे हैं, जिनमें समोहित है उस छत के नीचे गुजारे बचपन के दिन, वो खुशी के खिलखिलाते पल, वो रुठना, वो मनाना. साथ साथ गुजरे वो क्षण यादों में साए बनकर साथ पनपते हैं. कहाँ इतना आसान होता है निकल पाना उस वादी से, उस अनकही तड़प से, जिनको समीर जी शब्द में बांधते हुए ‘मां’ नामक रचना में वो कहते हैं:
वो तेरा मुझको अपनी बाहों मे भरना
माथे पे चुम्बन का टीका वो जड़ना..
जिन्दगी में कई यादें आती है. कई यादें मन के आइने में धुंधली पड़कर मिट जाती हैं, पर एक जननी से यह अलौकिक नाता जो ममता कें आंचल की छांव तले बीता, हर तपती राह पर उस शीतलता के अहसास को दिल ढूंढता रहता है. उसी अहसास की अंगड़ाइयों का दर्द समीर जी के रचनाओं का ज़ामिन बना है-
जिन्दगी, जो रंग मिले/ हर रंग से भरता गया,
वक्त की है पाठशाला/ पाठ सब पढ़ता गया…
इस पुस्तक में अपने अभिमत में हर दिल अज़ीज श्री पंकज सुबीर की पारखी नज़र इन सारगर्भित रचनाओं के गर्भ से एक पोशीदा सच को सामने लाने में सफल हुई है. उनके शब्दों में ‘पीर के पर्वत की हंसी के बादलों से ढंकने की एक कोशिश है और कभी कभी हवा जब इन बादलों को इधर उधर करती है तो साफ नज़र आता है पर्वत’. माना हुआ सत्य है, ज़िन्दगी कोई फूलों की सेज तो नहीं, अहसासों का गुलदस्ता है जिसमें शामिल है धूप-छांव, गम-खुशी और उतार-चढ़ाव की ढलानें. ज़िन्दगी के इसी झूले में झूलते हुए समीर जी का सफ़र कनाडा के टोरंटो, अमरीका से लेकर हिन्दोस्तान के अपने उस घर के आंगन से लेकर हर दिल को टटोलता हुआ वो उस गांव की नुक्कड़ पर फिर यादों के झरोखे से सजीव चित्रकारी पेश कर रहा है अपनी यादगार रचना में ‘मीर की गजल सा’-
सुना है वो पेड़ कट गया है/ उसी शाम माई नहीं रही
अब वहां पेड़ की जगह मॉल बनेगा/ और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शौचालय कहलाती है,
मेरा बचपन खत्म हुआ!
कुछ बूढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा…!
दर्द की दहलीज़ पर आकर मन थम सा जाता है. इन रचनाओं के अन्दर के मर्म से कौन अनजान है? वही राह है, वही पथिक और आगे इन्तजार करती मंजिल भी वही-जानी सी, पहचानी सी, जिस पर सफ़र करते हुए समीर जी एक साधना के बहाव में पुरअसर शब्दावली में सुनिये क्या कह रहे हैं-
गिनता जाता हूँ मैं अपनी/ आती जाती इन सांसों को
नहीं भूल पाता हूँ फिर भी/ प्यार भरी उन बातों को
लिखता हूँ बस अब लिखने को/ लिखने जैसी बात नहीं है.
अनगिनत इन्द्रधनुषी पहुलुओं से हमें रुबरु कराते हुए हमें हर मोड़ पर वो रिश्तों की जकड़न, हालात की घुटन, मन की वेदना और तन की कैद में एक छटपटाहट का संकेत भी दे रहे हैं जो रिहाई के लिये मुंतजिर है. मानव मन की संवेदनशीलता, कोमलता और भावनात्मक उदगारों की कथा-व्यथा का एक नया आयाम प्रेषित करते हैं- ‘मेरा वजूद’ और ‘मौत’ नामक रचनाओं में:
मेरा वजूद एक सूखा दरख़्त / तू मेरा सहारा न ले
मेरे नसीब में तो / एक दिन गिर जाना है
मगर मैं/ तुम्हें गिरते नहीं देख सकता, प्रिये!!
एक अदभुत शैली मन में तरंगे पैदा करती हुई अपने ही शोर में फिर ‘मौत’ की आहट से जाग उठती है-
उस रात नींद में धीमे से आकर/ थामा जो उसने मेरा हाथ…
और हुआ एक अदभुत अहसास/ पहली बार नींद से जागने का…
माना ज़िन्दगी हमें जिस तरह जी पाती है वैसे हम उसे नहीं जी पाते हैं, पर समीर जी के मन का परिंदा अपनी बेबाक उड़ान से जोश का रंग, देखिये किस कदर सरलता से भरता चला जा रहा है. उनकी रचना ‘वियोगी सोच’ की निशब्दता कितने सरल शब्दों की बुनावट में पेश हुई है-
पूर्णिमा की चांदनी जो छत पर चढ़ रही होगी..
खत मेरी ही यादों के तब पढ़ रही होगी…
हकीकत में ये ‘बिखरे मोती’ हमारे बचपन से अब तक की जी हुई जिन्दगी के अनमोम लम्हात है, जिनको सफल प्रयासों से समीर जी ने एक वजूद प्रदान किया है. ब्लॉग की दुनिया के सम्राट समीर लाल ने गद्य और पद्य पर अपनी कलम आज़माई है. अपने हृदय के मनोभावों को, उनकी जटिलताओं को सरलता से अपने गीतों, मुक्त कविता, मुक्तक, क्षणिकाओं और ग़ज़ल स्वरुप पेश किया है. मन के मंथन के उपरांत, वस्तु व शिल्प के अनोखे अक्स!!
उनकी गज़ल का मक्ता परिपक्वता में कुछ कह गया-
शब्द मोती से पिरोकर, गीत गढ़ता रह गया
पी मिलन की आस लेकर, रात जगता रह गया.
शब्द मोती के पिरोकर, गीत तुमने जो गढ़ा
मुग्ध हो कर मन मेरा ‘देवी’ उसे पढ़ने लगा
तुम कलम के हो सिपाही, जाना जब मोती चुने
ऐ समीर! इनमें मिलेगी दाद बनकर हर दुआ..
देवी नागरानी
न्यू जर्सी,
- मोलन -
Monday, November 15, 2010
FARZ
हर इंसान का फ़र्ज़ बनता हे ----- अपने समाज के प्रति , और इसे निभाना चाहिए --- जैसे- किसी के साथ गलत न होने देना ,
गलत होते हुए न देखना , बच्चो के सामने गलत न बोलना , दुसरों की मदद करना , समाज के प्रति विकास कार्यों को प्रमुखता देना ,
-मोलन -
गलत होते हुए न देखना , बच्चो के सामने गलत न बोलना , दुसरों की मदद करना , समाज के प्रति विकास कार्यों को प्रमुखता देना ,
-मोलन -
ACHIEVEMENTS IN LIFE
ACHIEVEMENTS IN LIFE
Life is a challenge --- --- Meet it
Life is a gift ---- ---------- accept it
Life is a sorrow ---- ------ over come it
Life is an adventure --- -- dare it
Life is a tragedy ---- ------ Love it
Life is a duty ------ -------- perform it
Life is a game ----- -------- play it
Life is an opportunity ----- take it
Life is a journey ---- ------- complete it
Life is a promise ----- ------ full fill it
Life is a Love ------- -------- enjoy it
Life is a struggle ---- -------- fight it
Life is a puzzle ----- --------- solve it
Life is a Goal ------ --------- Achieve it.
BY
D.kumar MOLAN
Friday, November 12, 2010
chhat puja
Chhath puja is performed on Kartik Shukala Shashti, which is the sixth day of the month of Kartik in the Hindu Calendar, exactly 6 days after Deepawali. Chhath, being an arduous observance, requiring the worshipers to fast without water for more than 24 hours, is tougher to undertake in the Indian winters.
Chhath 2010 date10 November (Day1: Naha Kha)
11 November (Day2: Kharna)
12 November (Day3: Sanjhiya Arghya)
13 November (Day4: Paran-Bihaniya Arghya)
Nahakha (literally, bathe and eat):On the first day of Chhath Puja, the devotees take a dip, preferably in the holy river Ganges, and carry home the holy water of the river Ganges to prepare the offerings. The house and surroundings are scrupulously cleaned. The parvaitin allows themselves only one meal on this day.
देओब्रत कुमार मोलन
Thursday, November 11, 2010
Tuesday, November 9, 2010
Barhiya (बड़हिया), बिहार: Barhiya - A Closer Look
Barhiya (बड़हिया), बिहार: Barhiya - A Closer Look: "Barhiya is a block of district lakhisarai in the state of bihar. As of 2001 India census, Barahiya had a population of 39,745. Males const..."
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